योग दर्शन को अपने विशिष्ट बौद्धिक संदर्भों के साथ एक ऐसा योग मार्ग प्रवर्तित किया जिसका लक्ष्य व्यापक मानव कल्याण से जुड़ा था। यह औपन्यासिक कृति अपनी विषयवस्तु एवं प्रस्तुति से एक प्रामाणिक जीवनी जैसा आभास कराती है।
पवित्र भारत भूमि पर समय-समय पर ऐसे सिद्ध मनीषियों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने बहुआयामी व्यक्तित्व से न केवल समाज को सही दिशा दिखाई, अपितु धर्म को भी नए आयाम दिए। नाथ संप्रदाय के महायोगी गोरक्षनाथ भी ऐसी ही एक विभूति थे, जिनके जीवन को आधार बनाकर रामशंकर मिश्र ने अपनी कृति ‘गोरखगाथा’ को आकार दिया है। यह पुस्तक बताती है कि भारतीय इतिहास के जिस मध्यकाल को संक्रांति काल भी कहा जाता है, उस भोगवादी युग में समाज द्रष्टा गुरु गोरक्षनाथ ने भारतीय धार्मिक परंपरा और योग दर्शन को अपने विशिष्ट बौद्धिक संदर्भों के साथ एक ऐसा योग मार्ग प्रवर्तित किया, जिसका लक्ष्य व्यापक मानव कल्याण से जुड़ा था। यह औपन्यासिक कृति अपनी विषयवस्तु एवं प्रस्तुति से एक प्रामाणिक जीवनी जैसा आभास कराती है।
चौदह अध्यायों (आधार) में विस्तारित यह पुस्तक गुरु गोरक्षनाथ की रचनाओं को भी समाहित करते हुए आगे बढ़ती है। गोरक्षनाथ जी के जीवन से जुड़े तथ्य बहुत करीने से कथ्य में पिरोये गए हैं। यह जीवन में योग और कर्म दोनों की साधना करने वाले तपस्वी की यशोगाथा है, जिन्होंने समाज में व्याप्त भोगवादी चित्तवृत्ति, चिंतन और जीवनशैली को उखाड़ फेंकने का उपक्रम किया और स्वयं ऐसे अनुकरणीय सामाजिक परिवर्तन के प्रवर्तक बने।
पुरातात्विक साक्ष्यों के अभाव, जनश्रुतियों की बहुलता एवं उनके विविधतापूर्ण विराट व्यक्तित्व को दृष्टिगत रखते हुए गोरक्षनाथ जी के जीवन को उपन्यास के रूप में आकार देना सरल कार्य नहीं था, परंतु लेखक ने गहन शोध से इस चुनौती को पूरा किया है। चूंकि कथा पूरी तरह गोरक्षनाथ जी पर केंद्रित है, अत: अधिकांश पात्र स्वतंत्र होते हुए भी उनकी परिधि में ही परिकल्पित प्रतीत होते हैं। फिर भी कई पात्र मुखरता से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। चमत्कारों की बहुलता के बावजूद लेखक ने गोरक्षनाथ जी को मानवीय रूप में ही प्रस्तुत किया है। इतिहास के एक महत्वपूर्ण कालखंड और उसे प्रभावित करने वाले व्यक्तित्व को समझने के दृष्टिकोण से यह पुस्तक अच्छी बन पड़ी है।